Listly by Shiv Mohan
Here, you find all dohe written by Sant Kabir Das has been translated into Hindi with their meaning. We hope that you will like our efforts.
Source: https://kabir-k-dohe.blogspot.com/
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, कि जिस प्रकार खजूर का पेड़ बड़ा तो होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया दे पाता है और उसके फल भी बहुत ऊँचाई पर लगे होते है। उसी प्रकार अगर आप किसी का भला नहीं करते अर्थात अपने से उम्र में छोटो का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकते तो आपके बड़े होने का कोई फायदा...
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काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, कि कभी भी किसी भी काम को कल पर मत छोड़ो, जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो । क्या पता कहीं अगले ही पल में प्रलय आ जाये और जीवन का अंत हो जाए, तब तो आपके सभी काम...
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यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, कि यह जो शरीर है वह विष सामान बुराइयों (जहर) से भरा हुआ है और एक सच्चा गुरु, अमृत की खान अर्थात उन विष सामान बुराइयों का अंत करने वाला होता हैं। यदि अपना शीश (सर) का दान कर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु...
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ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, कि प्रत्येक मनुष्य को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो श्रोता (सुनने वाले) के मन को आनंदित (अच्छी लगे) करे। ऐसी भाषा सुनने वालो को तो सुख का अनुभव कराती ही है, इसके साथ स्वयं का मन भी आनंद का अनुभव...
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तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय |
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय| ||
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, पांवो के नीचे आने वाले छोटे से तिनके की निंदा कभी मत करो, क्योकि यदि वह उड़कर आपकी आँख में आ गिरे तो असहनीय पीड़ा देता है | इसी प्रकार किसी भी प्राणी निंदा व् उपहास...
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जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ, जब अहंकार (अहम) समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले | जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ, तब अहंकार स्वत: ही नष्ट हो गया | ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ | प्रेम में द्वैत भाव नहीं...
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पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
भावार्थ: ज्ञान से बड़ा प्रेम होता है, बहुत ज्ञान हासिल करने के पश्चात यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए (ईंट जैसा निर्जीव हो जाए) तो क्या लाभ ? अर्थात यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं | जिस मानव मन को प्रेम ने नहीं छुआ...
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जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार को पडा रहन दो म्यान॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठा हुआ माना जाता है | साधू से यह कभी नहीं पूछा जाता की वह किस जाति का है उसका ज्ञान ही, उसका सम्मान करने के लिए पर्याप्त है | जिस प्रकार एक तलवार का मोल...
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चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, जब उन्होंने चलती हुई चक्की (गेहूं पीसने या दाल पीसने में इस्तेमाल किया जाने वाला यंत्र) को देखा तो वह रोने लगे क्योंकि वह देखते हैं की किस प्रकार दो पत्थरों के पहियों के निरंतर आपसी घर्षण के बीच कोई भी गेहूं का दाना या दाल साबूत नहीं रह जाती, वह टूटकर या पिस कर आंटे में परिवर्तित हो रहे हैं। कबीर दास जी अपने इस दोहे से कहना चाहते है कि जीवन के इस संघर्ष में...
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साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, सच्चे साधु का मन भाव को जानता है, भाव का भूखा होता है, वह धन का लोभी नहीं होता क्योकि जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं...
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पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा, गुना, सुना, सीखा, पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला | कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है, ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?
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प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, प्रेम खेत में नहीं उपजता, प्रेम बाज़ार में भी नहीं बिकता | चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा, यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा | त्याग और समर्पण के बिना...
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कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि सच्चा संत (पीर) वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता हो, उसे समझता हो | जो दूसरे के दुःख को नहीं समझते...
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हाड जले लकड़ी जले, जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले, कासों करूं पुकार ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, दाह संस्कार में हमारे शरीर की हड्डियां जलती हैं, उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है और उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल ही जाता है | समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है | जब सब का अंत यही हैं तो पनी पुकार किसको दूँ ? किससे गुहार करूं, विनती या कोई आग्रह...
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दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ॥
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, सभी लोग प्रभु का ध्यान अपने स्वार्थ के लिए केवल दुःखों में करते हैं, ताकि प्रभु भक्ति से मिलने वाली शक्ति से वह अपने दुःखों से लड़ या कम कर सके, यदि वह सभी अपने सुखो में भी प्रभु का ध्यान करते रहेंगे, उनको धन्यवाद करते रहेंगे तो
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